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लघुकथाएँ

साझा दुख

दीपक मशाल


- बाबू आप चुप रहिए या भीतर चले जाइए...।

बेटे के कहे ये शब्द दिन भर से गणेशन के दिमाग में गूँज रहे थे।

उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि बेटे ने अपने तमाम जूनियर अफसरों के सामने उसका इस तरह अपमान किया। एक समय था कि यही बेटा उसके सामने थर-थर काँपता था।

- आपकी चाय सा'ब, बूढ़े रसोइये हरिहर ने गणेशन के सामने मेज पर चाय और बिस्कुट रखते हुए कहा।

- ये वापस ले जा हरिहर।

- कुछ तो ले लीजिए सा'ब, आपने सुबह से कुछ नहीं खाया।

- अरे मैं पानी भी नहीं पीऊँगा इस घर का। कल सबेरे की ही गाड़ी से गाँव वापस चला जाऊँगा।

- ऐसे नाराज मत होइएगा... फिर आपको भी तो सबके सामने बात-बात पर नहीं टोकना चाहिए ना... बड़े अफसर हैं वो।

- अरे तो अफसर बाप से भी बड़ा हो जाता है क्या?

कुछ देर तक चुप रहा हरिहर, फिर एक तरफ मुँह करके रुँधे गले से बोला...

- बड़ा होकर तो बड़ा ही हो जाता है सा'ब, क्या अफसर और क्या चपरासी।

गणेशन ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया, दोनों की आँखें भीगी हुई थीं।


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